राजकिशन नैन, दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़
अतीत में भारत ने अध्यात्म के क्षेत्र में जो सर्वोच्च मुकाम हासिल किया था, उसके दृष्टिगत यहाँ अध्यात्म और पत्रकारिता का साथ होना नितांत आवश्यक है। किंतु भारतीय पत्रकारिता के निरंतर व्यावसायिकता की दलदल में धंसते जाने के कारण इसमें अध्यात्म का स्थान अभी तक ऊंट के मुंह में जीरे के समा है। प्रो. सुखनन्दन सिंह की किताब आध्यात्मिक पत्रकारिता में अध्यात्म से जुड़ी पत्रकारिता की जो पड़ताल गहन शोध एवं अनुसंधान के बाद की गई है, वह बहुआयामी और सारगर्भित होने के साथ-साथ कतई सटीक व तथ्यपरक है।
किताब में आध्यात्मिक पत्रकारिता के स्वरुप, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं विकास से लेकर अध्यात्म के महत्व, समाचार पत्रों-पत्रिकाओं व आध्यात्मिक पत्रिकाओं में प्रस्तुत आध्यात्मिक सामग्री, टीवी और वेब माध्यमों में प्रसारित हो रहा अध्यात्म, वर्तमान मूल्य संकट एवं आध्यात्मिक पत्रकारिता, आध्यात्मिक पत्रकारिता की संभावनाएं एवं चुनौतियां तथा उसके भविष्य से जुड़े सारे विषय शामिल किये गये हैं।
लेखक ने अध्यात्म एवं पत्रकारिता के बीच तादात्मय
एवं एकात्म भाव को पुख्ता करने हेतु इस किताब का प्रणयन किया है जो स्तुत्य एवं
स्वागतयोग्य है। किताब की एक और खूबी यह है कि इसमें हर एक अध्याय के बाद उन
स्रोतों और संदर्भ ग्रंथों की सूची है, जिनसे निकलकर यह जानकारी आप तक पहुँची है।
जीवन में शाश्वत मूल्यों की रक्षा करना और देशहित एवं परोपकार के कलिए सदैव तत्पर
रहना ही अध्यात्म है।
मनुष्य को नकारात्मक कार्यों से बचाने एवं परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्थान तथा मनुष्यता को बनाये रखने के लिए अध्यात्म का महत्व निर्विवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में भारतेंदु, तिलक, श्रीअरविंद, मदनमहोन मालवीय, गणेश शँकर विद्यार्थी, माखनलाल, गाँधीजी और पराड़कर जैसे मनीषियों ने एक मिशन के नाते आध्यात्मिक पत्रकारिता को अपनाकर जनमानस को त्याग, बलिदान व संघर्ष के लिए जगाया था। उस समय देश की कमान राजनेताओं से अधिक पत्रकारों के हाथों में थी।
पं. श्रीराम शर्मा के मुताबिक संसार का सबसे बड़ा
व्यक्ति वह है, जो आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न है। रामायण काल में सुभट यौद्धा
हनुमान, अंगद आदि का खोजी दूत के रुप में लंका जाना उत्कृष्ट पत्रकारिता के चैतन्य
स्वरुप का द्योतक है। कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध की बेहतरीन ऑडियो-विजुअल
रिपोर्टिंग संजय के माध्यम से होती हुई देखी जा सकती है। तीनों लोकों में विचरने
वाले नारदजी तीनों लोकों की सूचनाओं एवं घटनाओं के प्रथम ज्ञाता थे।
आदि शंकराचार्य की सांस्कृतिक यात्राएं एवं
शास्त्रार्थ प्रकारान्तर में इसी की अगली कड़ियां रहीं, जिसने पूरे राष्ट्र को एक
सांस्कृतिक सूत्र में पिरोया। अंग्रेज राज में स्वामी विवेकानन्द की परिव्रज्या
में आध्यात्मिक पत्रकारिता एवं संचर का दिगंतव्यापी उद्घोष होता है। नानक, कबीर,
सूर, तुलसी, नामदेव एवं चैतन्य महाप्रभु सरीखे संत कवियों के सुरों में जीवंत
आध्यात्मिक प्रवाह मौजूद है। आस्था संकट के इस युग आध्यात्मक पत्रकारिता की अधिकाधिक जरुरत है।
पत्रकारिता एवं शैक्षणिक शोध से जुड़ी देश की नई
पीढ़ी को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए ताकि मुख्यधारा की पत्रकारिता में आध्यात्मिक
पत्रकारिता जैसी उपेक्षित विधा को उपयुक्त स्थान मिल सके।
(दैनिक ट्रिब्यून, चण्डीगढ़, 30 मई, 2021 में
प्रकाशित)
प्रकाशक – विनसर पब्लिशिंग कंपनी, देहरादून, उत्तराखण्ड,
पृष्ठ – 175, मूल्य - 255 रुपए
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