आध्यात्मिक पत्रकारिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आध्यात्मिक पत्रकारिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

आध्यात्मिक पत्रकारिता की सम्भावनाएं एवं इसका भविष्य

 

The potential of Spiritual Journalism & its Future

 

भारतीय प्रिंट मीडिया में आध्यात्मिक पत्रकारिता का स्वरुप मुख्य धारा की पत्र-पत्रिकाओं में धर्म-अध्यात्म विषयक सामग्री के सहित विशुद्ध रुप से धर्म-अध्यात्म को समर्पित पत्रिकाओं से मिलकर बनता है। मुख्यधारा के पत्रों में जहाँ इसका स्वरुप अभी प्रायोगिक स्तर पर चल रहा है और हिंदी के कुछ पत्र तथा अंग्रेजी के अधिकाँश पत्रों में इसके प्रति व्यापक स्तर पर उपेक्षा या जाग्रति का अभाव देखने को मिलता है। मुख्यधारा की हिंदी व अंग्रेजी की पत्रिकाओं में भी इसके प्रति न्यूनाधिक उपेक्षा एवं जाग्रति का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है। टीवी एवं वेब माध्यम से प्रसारित हो रहे अध्यात्म की अपनी विशेषताएं व सीमाएं हैं, जिनपर पिछले अध्यायों में प्रकाश डाला गया है।

भारतीय पत्रकारिता में मूल्यों के ह्रास के संदर्भ में आध्यात्मिक पत्रकारिता से जिस प्रभावी एवं अनुकरणीय भूमिका की उम्मीद थी वह मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाओं एवं मीडिया से करना वेमानी होगा। क्योंकि यहाँ पत्रकारिता व्यवसाय बनी हुई है और आध्यात्मिक विषयक सामग्री का प्रकाशन भी यहाँ नफे-घाटे के तराजू पर ही तोला जाता है। किसी व्यापक परिवर्तन के किसी क्राँतिकारी एवं लोक कल्याणकारी भाव से इनका ज्यादा लेना देना नहीं है। अतः इनकी सीमा स्पष्ट है। इनमें अध्यात्म विषय सामग्री का छपने का महत्व यह है कि इसका स्पेस जितना अधिक बढ़ेगा, उतना ही इनमें सकारात्मक एवं प्रेरक पठन सामग्री बढ़ेगी। नकारात्मक मूल्यों एवं सनसनीखेज समाचारों से ग्रसित होती पत्रकारिता में कुछ सकारात्मक  मूल्यों, सकारात्मक समाचारों एवं सात्विक भावों का विस्तार एवं संचार होगा। इससे अधिक मुख्यधारा की आध्यात्मिक पत्रकारिता से अभी आशा नहीं की जा सकती।

जबकि विशुद्ध रुप से आध्यात्मिक पत्रकारिता को समर्पित पत्रिकाओँ टीवी चैनलों एवं वेब-प्लेटफार्म से इस संदर्भ में उम्मीद की जा सकती है, जिसके अपने ठोस आधार हैं।

आस्था की प्रतीक पत्रिकाएँ -

     कल्याण, अखण्ड ज्योति, अग्निशिखा, पुरोधा, अखण्ड आनन्द और परमार्थ जैसी पत्रिकाओं ने तो वास्तव में इतनी प्रतिष्ठा अर्जित की है कि इन्हें धर्मग्रन्थों की तरह मँगाया और पढ़ा जाता है। कल्याण के मानस अँक और शक्ति अँक का पाठ पारायण तक हुआ है औऱ नवरात्रियों में लोगों ने इनका साधना ग्रन्थों की तरह प्रयोग किया है। अब भी कल्याण मंगाना परिवार में धर्मप्राण होने का परिचायक माना जाता है।[i] इसके योग अंक, साधना अँक, भगवन्नाम एवं प्रार्थना अंक, भक्त चरिताँक आदि इसके कुछ अध्यात्म प्रधान वार्षिक अँकों के उदाहरण हैं, जो साधकों के जीवन को प्रकाशित करने वाले हैं।

     यही स्थिति अखण्ड ज्योति की है। इसके स्वाध्याय ने न जाने कितने व्यक्तियों के जीवन की दिशाधारा को पलटा है। इसके नैष्ठिक पाठकों की कमी नहीं, जो इसके अध्यात्मपरक लेखों का साधना के बतौर परायण करते हैं। इसके कई धारावाहिक अब तक पुस्तक रुप में प्रकाशित होकर स्वाध्याय साधना की लोकप्रियता के प्रतिमान गढ़ चुके हैं, जिसमें चेतना की शिखर यात्रा, युग गीता, अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान विज्ञान, शिष्य संजीवनी, श्रीगुरुगीता आदि उल्लेखनीय हैं। इसी तरह इसके कई विशेषाँक युग साहित्य के तौर पर जनमानस की बुद्धि को प्रज्ञा के प्रकाश से आलोकित कर रहे हैं, जैसे – युवा क्राँति पथ, नवयुग का दायित्व बोध-जीवन साधना, वैज्ञानिक अध्यात्म के क्राँतिदीप आदि। और यह श्रृँखला अभी थमी नहीं है। हर वर्ष इसमें नए अध्याय जुड़ते जा रहे हैं।

     अखण्ड  ज्योति के प्रवर्तक एवं आदि सम्पादक आचार्य पं. श्रीरामशर्मा के शब्दों में - अखण्ड ज्योति- नए युग की सन्देश वाहिका के रूप में अवतीर्ण हुई है।[ii] अखण्डज्योति के लेख कागज पर काले अक्षर छाप देने मात्र की प्रक्रिया नहीं है, वरन् उनकी एक-एक पंक्ति में एक दर्द, एक आग और एक प्रकाश भरा रहता है।आत्मिक अनुभूतियों के आधार पर उन्हें लिखा जाता है।[iii] अखण्डज्योति की पंक्तियाँ कलम, स्याही से नहीं, वरन् हमारी अन्तरात्मा केआग-पानी से लिखी जाती हैं। इसे जो कोई ध्यान पूर्वक पढ़ते हैं, उनके भीतरभी वैसी ही विचार क्रान्ति की चिन्गारियाँ उठना स्वाभाविक है, जो कागज केपन्नों में लपेट कर हम यहाँ से भेजते हैं।[iv]अखण्ड ज्योति ने मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने वाली विचारधारा का सृजन एवं प्रसार किया है।[v] जागरणबेला की प्रभात कालीन शंख ध्वनि का नाम "अखण्ड ज्योति" है। उसका हर एक अंकपाठकों के लिए प्रेरणा, प्रकाश एवं उद्बोधन लेकर पहुँचता है। जिनकी जाननिकल गई, जो अपना वर्चस्व खो बैठे, उनकी बात जाने दीजिए अन्यथा अधिकांश जनभावनापूर्वक इस प्रकाश को ग्रहण करते हैं।[vi]

 

मर्यादा निर्वहन एवं सत्प्रेरणा की स्रोत्र -

     आध्यात्मिक पत्रिकाएं अधिकाँशतः अभी भी व्यवसायिकता के चंगुल से बची हैं तथा अभी भी कई मर्यादाएं निभा रही हैं और लोगों में सत्प्रेरणा उभार रही हैं। स्वंतन्त्रता आन्दोलन के समय पत्रकारिता के क्षेत्र में जो सेवा भावना ओत-प्रोत दिखाई देती थी, आध्यात्मिक पत्रिकाएँ अभी भी उसका निर्वाह कर रही हैं।

     सन् 1928 में कल्याण का प्रकाशन शुरु होते समय महात्मा गाँधी ने हनुमान प्रसाद पोद्दार से दो नियम निभाने को कहा गया था। एक तो यह कि पत्रिका में कोई विज्ञापन नहीं निकालना और दूसरे पुस्तकों की समालोचना मत छापना। इन निर्देशों के पीछे धार्मिक पत्रिकाओँ की विश्वसनीयता से अनुचित लोभ नहीं उठाने और किन्हीं विवादों में उलझने से बचने की भावना ही थी। गाँधी जी के निर्देश पत्रिकाओँ ने मर्यादा की तरह अपनाए। सभी प्रतिष्ठित धार्मिक पत्रिकाएँ कमोबेश इस मर्यादा का पालन कर रही हैं।[vii] आचार्यश्री पं. श्रीरामशर्मा द्वारा प्रवर्तित घियामण्डी मथुरा से छपने वाली अखण्ड ज्योति ने भी प्रारम्भ से ही बिना विज्ञापन के छपने की मर्यादा का पालन किया है। तमाम वित्तीय दिक्कतों के चलते भी अभी तक यह अपनी मर्यादा का निर्वाह कर रही है। मात्र लागत मूल्य पर पत्रिका का मिशनरी स्वयंसेवकों द्वारा परमार्थ भाव से घर-घर पहुँचा कर उपलब्ध करवाना स्वयं में एक मिसाल है।

     आचार्य़श्री के शब्दों में - जो लोग अखण्ड ज्योति पढ़़तेहैं, वे वस्तुतः हमारा व्यक्तिगत सत्संग ही करते हैं।...विज्ञापनएक भी नहीं छपता। जबकि अन्य पत्रिकाओं की प्रायः आधी आमदनी विज्ञापन से हीहोती है। सोचा यह गया है कि पत्रिकाओं को मात्र विक्रेताओं की मण्डी बनाकरउनके लाभांश में जो टुकडा़ मिल जाता है, उसे महत्व न दिया जाय और किसीप्रकार कागज छपाई का मूल्य पाठकों से लेकर उन्हें सर्वोत्कृष्ट पाठ्यसामग्री पहुँचाई जाय।[viii]

     विज्ञापन नहीं लेने से पत्रिकाओँ को नुकसान हुआ होगा। वैसे धार्मिक पत्रिकाएँ लाभ कमाने के लिए निकलती भी नहीं हैं। इनमें या तो धर्मार्थ सदविचारों के प्रचार प्रसार का भाव रहता है, या अपने प्रवर्तक आचार्य या गुरु के जीवन दर्शन एवं क्रियाक्लापों का विस्तार का भाव रहता है। अधिकाँशतय कुछेक धार्मिक सांस्कृतिक पत्रिकाएँ विज्ञापन छापती हैं और उनमें बीड़ी सिग्रेट से लेकर ताकत की आयुर्वेदिक दवाओँ के विज्ञापन भी छपते हैं। लेकिन इसी कारण न उनकी कोई छवि बन पाई और न ही उनका कोई प्रभाव ही बढ़ा। वे प्रकाशित करने वाले संस्थानों की सूचनाएँ छापने और समाचार देने वाली विज्ञप्तियाँ मात्र रह गईँ।[ix]

     इस दुर्बलता से मुक्त आध्यात्मिक पत्रिकाएँ पाठकों के बीच सात्विक आस्था एवं सदविचारों के प्रचार प्रसार के साथ अपनी महत्ती सेवा दे रही हैं।

 

रचनात्मक आन्दोलनों की उत्प्रेरक

     सशक्त वैचारिक आधार एवं आध्यात्मिक भाव को लिए पत्रिकाएँ आंदोलनों की माध्यम तक बनी हैं। जो धार्मिक पत्रिकाएँ अपने स्वरुप से इधर-उधऱ नहीं हुईँ, उन्होंने संगठन ही नहीं बनाए, जन सहयोग भी जुटाया और आन्दोलन भी चलाए। मथुरा से प्रकाशित होने वाली अखण्ड ज्योति मासिक पत्रिका मात्र पाँच सौ प्रतियों से शुरु हुई थी। इन दिनों पत्रिका की सदस्य संख्या पाँच लाख के आस-पास है और उसे पढ़ने वालों का एक विशाल संगठन भी है।[x] गायत्री यज्ञ के तत्वदर्शन के प्रचार प्रसार से लेकर यह संगठन सत्प्रवृति संबर्धन और दुष्प्रवृति उन्मूलन के कई रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्य़क्रम चला रहा है। अखण्ड ज्योति मासिक पत्रिका आचार्यश्री द्वारा प्रवर्तित बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक आंदोलन के लिए आवश्यक आध्यात्मिक मार्गदर्शन का कार्य सतत करती रही है। शांतिकुंज के तत्वाधान में चल रहा युग निर्माण आन्दोलन इसी की वैचारिक धुरी पर चल रहा है। इसी तरह इसकी सहायक पत्रिका युग निर्माण योजना, प्रज्ञा पाक्षिक आदि अपने ढंग से इस कार्य में सहयोग कर रहे हैं।

युग निर्माण आंदोलन के प्रवर्तक एवं अखण्ड ज्योति के आदि सुत्रधारक आचार्य़ पं.श्री राम के शब्दों में - अखण्डज्योति ने ऋषियों के उस कथन को इस छोटे से जीवनकाल में भली प्रकार अनुभवकर लिया है कि स्वाति बूँद की भाँति, अमृतकणों की भाँति अध्यात्म ज्ञानजहाँ भी पहुँचेगा, वहीं परिवर्तन होंगे और चमत्कार भी।अखण्डज्योति का कलेवर छपे कागजों के छोटे पैकिट जैसा लग सकता है, पर वास्तविकतायह है कि उसके पृष्ठों पर किसी की प्राण चेतना लहराती है और पढ़ने वालोंको अपने आंचल में समेटती है, कहीं से कहीं पहुँचाती है। बात लेखन तक सीमितनहीं हो जाती, उसका मार्गदर्शन और अनुग्रह अवतरण किसी ऊपर की कक्षा से होताहै। इसका अधिक विवरण जानना हो, तो एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कियह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाले ऋषि चेतना का समन्वितअथवा उसके किसी प्रतिनिधि का सूत्र संचालन है।[xi] अखण्डज्योति की ज्ञान गंगा ने अनेकों उद्यानों-खलिहानों को सुसम्पन्न बनाया है।इसके लेखन के विविध रूप, इस महान् कार्य का माध्यम बने हैं।[xii]

इसी तरह कल्याण की बदौलत घर-घर में रामायण एवं गीता का प्रवेश हुआ। पत्रिका ने बिना शोर शराबा किए हजारों ऐसे लोग ढाले जो शुद्ध सात्विक जीवन में निष्ठा रखते और उसके लिए निर्धारित विधि निषेधों का कड़ाई से पालन करते हैं।[xiii] परिवार में सुसंस्कारिता संबर्धन और व्यक्ति में धर्मपरायणता के भावों के बीजारोपण में कल्याण ने सराहनीय भूमिका निभायी है और अभी भी निभा रही है।

     राजकोट से प्रकाशित होने वाली गुजराती की जताराम ज्योति ने करीब पौने दो लाख लोगों का सहयोग जुटाया और सेवापरक गतिविधियाँ शुरु कीं। कुछ सौ प्रतियों से शुरु होकर हजार गुना विस्तार करने वाली यह पत्रिका शुरु से अब तक अपना स्वरुप कायम रखे हुए है। गुजराती कल्याण, जन कल्याण, अखंड आनन्द, आनन्द संदेश, महाप्रभु दर्शन, गुरु सार्वभौम, रामदर्शन तत्वदीप, अखण्डप्रभा, अखँड सच्चिदानन्द संदेश, वेद सविता आदि कितनी ही पत्रिकाएँ हैं जिन्होंने छोटे बड़े संगठन बनाए और लोगों के आध्यात्मिक रुझान को दिशा दी है।[xiv]

     स्वतंत्रता पूर्व भारत धर्म महामण्डल संगठन के पत्र भारत धर्म और निगमा निगम चन्दिका ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस युग में मण्डल ने एक आन्दोलन का सूत्रपात और संचालन किया था। 165 वर्ष से वीरान पड़े बद्रीनाथ के शंकराचार्य मठ को पुनर्जीवित करने और विच्छिन्न आचार्य परम्परा फिर से शुरु करने का ऐतिहासिक कार्य इसने किया था और कितनी ही धार्मिक और सामाजिक गतिविधियाँ मण्डल ने चलाईं और उनके लिए पत्रिकाओँ ने सम्पर्क सूत्र और संदेशवाहक की आवश्यकता पूरी की थी।[xv]

     1965-66 में देश भर में चले गौरक्षा महाअभियान के समय धार्मिक पत्रिकाओँ ने भारतीय चेतना को झकझोर कर खड़ा किया। उस समय आन्दोलन की कमान धार्मिक पत्रिकाओँ और उनके प्रकाशित करने वाले धार्मिक संस्थानों के हाथ में थी। अन्यथा इतर पत्रिकाएं इसी बहस में उलझी हुईँ थी कि गोहत्या बन्द करना चाहिए या नहीं। इसके क्या लाभ और हानियाँ हैं।

आपात काल के दौरान कई धार्मिक पत्रिकाओँ ने धर्मयुद्ध के प्रसंग छापकर उस समय की व्यवस्था का विरोध उभारा था। धार्मिक पत्रिकाओं में आवरण पृष्ठ पर कई अंको तक लगातार महाभारत में कृष्ण के रथ का पहिया लेकर टूट पड़ने को तैयार मुद्रा वाले चित्र छापे। परशुराम की युद्ध कथाएँ छापी और लिखा भी कि अब वक्त आ गया है जब धर्मतन्त्र को अपना उत्तरदायित्व समझना चाहिए औऱ यौद्धा सन्यासी की तह लड़ने, मर जाने की तत्परता दिखानी चाहिए। सेंसर करने बैठे अधिकारियों ने भी यह सामग्री धार्मिकता के कारण बगैर काट-छाँट  किए जाने दी।[xvi]

     अतः उपरोक्त आस्थापरक आधार के चलते आध्यात्मिक पत्रिकाओँ की शक्ति सामर्थ्य एवं प्रभावशीलता अतुल्नीय है। वह पाठकों एवं जनमानस के उस मर्म को सरलता से छू सकती है जिसे सरकारी तंत्र या महज व्यवसायिक लाभ से प्रेरित जनमाध्यम अपने तमाम तामझाम के साथ भी नहीं कर सकते।

 

नैतिक मूल्य और सद्गुण सत्प्रवृत्ति सम्बर्धन -

     नैतिक मूल्यों और सदगुणों सत्प्रवृत्तियों में आस्था सुदृढ़ करने की दृष्टि से भी धार्मिक पत्रिकाओं ने बहुत कुछ योगदान दिया है। इस योगदान का स्वरुप गढ़ा नहीं जा सकता। फिर भी जासूसी उपन्यास, अपराध कथाएँ और अश्लील कहानियाँ किसी अंश तक कुत्सित प्रवृत्तियोँ को उकसाती हैं तो इस बात से इन्कार करने का कोई कारण नहीं है कि धार्मिक पत्रिकाएं सत्प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती हैं।[xvii] जिस घर में आध्यात्मिक पत्रिकाओं का नित्य पाठ एवं स्वाध्याय होता है, वहाँ व्यक्ति में सत्चिंतन, सद्भाव एवं सत्कर्म की त्रिवेणी का प्रवाहमान होना सुनिश्चित है।

अखण्ड ज्योति के आदि सम्पादक आचार्य पं. श्रीराम शर्मा के शब्दों में - अखण्डज्योति अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोगी बनाने के निमित्त दार्शनिकस्तर पर ही नहीं, अनेक आधारों को लेकर लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रयत्नरत है।[xviii]उत्कृष्टतावादीचिन्तन और आदर्शवादी व्यवहार से समन्वित देव जीवन किस प्रकार सामान्य अथवाजटिल परिस्थितियों के बीच जीवन किस प्रकार जिया जा सकता है, उसका अनुभवपूर्ण मार्गदर्शन अखण्ड ज्योति केपृष्ठों पर मिलता है। असंख्यों ने इन प्रेरणाओं और परामर्श के आधार पर अपनेको बदला और ढाला है। पत्रिका का मार्गदर्शन एक प्रकार से जीवन जीने की कलाया जीवन साधना पाठ्यक्रम ही कहा जा सकता है।[xix]

     पत्रिकाओं के प्रमुखतया दो वर्ग होते हैं, एक वे, जो शुरु से अंतिम पृष्ठ तक ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सदाचार, कर्तव्यनिष्ठा और देशभक्ति की प्रेरणा देनेवाली सामग्री से भरी रहती हैं। दूसरी वे, इस अर्थ में पत्रिका कम परिपत्र अधिक होते हैं। इनमें प्रकाशित करने वाले संस्थापक या संचालक का गुणगान ज्यादा होता है और उनसे सम्बन्धित समाचार सूचनाएँ बहुलता में छपती हैं। इस कारण ये अपने शिष्य़ समुदाय में ही अधिक प्रचलित रहती हैं।

     वैचारिक प्रदूषण के इस युग में श्रेष्ठ विचारों की संवाहक आध्यात्मिक पत्रिकाओं की भूमिका को भली भाँति समझा जा सकता है। आध्यात्मिक साहित्य सीधा आस्था क्षेत्र को सिंचित करता है व श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण करता है। यह चिंतन को परिष्कृत करता है जो मिलकर सदाचरण की प्रेरणा देते हैं। अंतर्विवेक के जागरण के साथ जीवन की दिशाधारा ही बदल जाती है। जीवन में संयम, सेवा, सदाचार, उदारता, सहिष्णुता जैसे सदगुणों की महत्ता समझ आती है और इन्हें ज्बरन नहीं बल्कि सहर्ष जीवन में धारण करने का सुयोग बनता है। इस तरह व्यक्ति के जीवन में रुपाँतरण के साथ परिवार एवं समाज में देवत्व का संचार होता है और शांत एवं सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण होता है।

     आध्यात्मिक पत्रकारिता के संदर्भ में वर्णित उपरोक्त योगदान आध्यात्मिक पत्रिकाओं तक सीमित नहीं है, ये इस भाव के साथ चल रहे आध्यात्मिक चैनल्ज एवं वेब माध्यम पर भी लागू होता है, बल्कि अपनी ऑडियो-विजुअल अपील एवं इंटरएक्टिविटी के आधार पर और अधिक प्रभावी रहता है।

     संभावनाओं की कड़ियों में क्राँतिकारी विचारकों का तो यहां तक मानना है कि आध्यात्मिक पत्रकारिता एक नए युग का प्रारम्भ बन सकती है।

 

नए युग का सूत्रपात कर सकती है आध्यात्मिक पत्रकारिता

ओशो रजनीश का यह वक्तव्य विचारणीय है, जब वे कहते हैं कि,नए युग का प्रारम्भ बन सकती है पत्रकारिता[xx]और इसके उनके अपने तर्क हैं तथ्य हैं एवं ठोस आधार हैं। इसे वे आध्यात्मिक पत्रकारिता के आधार पर ही संभव मानते हैं। वे लिखते हैं, कि यह देश दो हजार वर्षों तक गुलामी में रहा है। इस कारण लोगों में अध्यात्मिक गुलामी पैदा हो गई है। यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से हम स्वतंत्र हैं लेकिन मानसिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम हैं।...

     ...पत्रकारिता पश्चिम की पैदाइश है और वहाँ जो भी होता है, उसकी हम नकल करते हैं, वह हमारा अपना निर्माण नहीं है। पश्चिम अध्यात्म में विश्वास नहीं करता है। इस वजह से वह तीव्र संताप और तनाव में जी रहा है। वहाँ आत्महत्या की दर पूर्व से चार गुना ज्यादा है। गरीब देशों में लोग भूख के कारण, भोजन के अभाव के कारण आत्महत्या करते हैं। लेकिन पश्चिम में लोग इसलिए आत्महत्या करते हैं क्योंकि उनके पास सब कुछ है और जीवन निरर्थक मालूम पड़ता है। उनके पास भरपूर धन है, वह सब है जो धन खरीद सकता है, लेकिन कुछ ऐसी भी बातें हैं जिन्हें धन नहीं खरीद सकता। वे मौन नहीं खरीद सकते, वे आनन्द नहीं खरीद सकते, वे प्रेम नहीं खरीद सकते, ध्यान नहीं खरीद सकते।...

     रजनीश के शब्दों में पत्रकारिता पश्चिम की देन है। तुम अभी भी उस चीज की नकल कर रहे हो, जो तुम्हारी संस्कृति में विकसित नहीं हुआ है, तुम्हारे वातावरण में नहीं पला है, जो इस मिट्टी का अंश नहीं है, यहां नहीं खिला है। तो तुम एक प्लास्टिक के फूल को हाथ में लिए हो। उसकी कोई जड़ें नहीं हैं। पश्चिम में समाचार माध्यमों को आध्यात्मिकता में कोई रस नहीं है क्योंकि पश्चिम में एक भी व्यक्ति को अध्यात्म में रस नहीं है। इस कारण वे दुख पा रहे हैं। कितने ही लोग मनोविश्लेषण करवा रहे हैं। कितने ही लोग मनोचिकित्सा के रुग्णालयों में है। कितने ही लोग पागल हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, खून कर रहे हैं। वे ये सब बातें इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें जीवन अर्थहीन लगता है व्यर्थ लगता है।...

हमारे पत्रकारिता के शिक्षण पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक विकास, आध्यात्मिक आयाम बिल्कुल ही अपेक्षित रह जाता है। क्योंकि हम पत्रकारिता को इस मिट्टी में विकसित नहीं कर रहे हैं, उसमें इस मिट्टी की सुगन्ध नहीं है। हम सिर्फ नकल कर रहे हैं और यह एक कटु सत्य भी है। पत्रकारिता के किसी पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक पत्रकारिता का नामोनिशान नहीं है। नैतिक आध्यात्मिक विकास की कहीं कोई चर्चा नहीं होती।[xxi]

...इससे समाज को भयंकर नुकसान पहुँच रहा है। क्योंकि यहाँ अध्यात्म सबसे मूलभूत बात है। लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली के साथ भी वही हो रहा है। यहाँ के विद्यालय विश्वविद्यालयों में हर कहीं पश्चिम की मानसिक दासता है। पश्चिम में जो भी हो रहा है उसकी नकल करनी है, यह हमारी अचेतन आदत बन गई है। पत्रकारिता को अपना ढंग खुद खोजना होगा। अपनी निजता खुद विकसित करनी होगी। अपनी व्यक्तिकता विकसित करनी होगी।...

            आध्यात्मिकता जीवन का सारभूत अर्थ है। आत्मा के बिना आदमी सिर्फ शव है और आध्यात्मिकता के बिना कुछ भी शिक्षा, पत्रकारिता सिर्फ शव है। उससे दुर्गन्ध आती है। पश्चिमी चिंतकों से प्रभाविक आधुनिक विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम को अपने आध्यात्मिक अतीत से जोड़ने को तैयार नहीं हैं। उनकी पत्रकारिता में उनकी शिक्षा में, उनकी राजनीति में कबीर, नानक, पतंजलि या बुद्ध का कोई चिन्ह नहीं है।राजनीतिक दृष्टि से तुम स्वतंत्र हो लेकिन मानसिक दृष्टि से बिल्कुल स्वतंत्र नहीं हो। पत्रकारिता को स्वयं को पश्चिम से मुक्त करना है और फिर अपने को एक प्रामाणिक मौलिक आकार देना है। आचार्य रजनीश के शब्दों में तुम आश्चर्यचकित होओगे कि यदि तुमने पत्रकारिता को आध्यात्मिक आयाम दिया तो आज नहीं तो कल, पश्चिम तुम्हारा अनुकरण करेगा। क्योंकि वहाँ तीव्र भूख है, गहन प्यास है। दूसरों की नकल करने की वजाए तुम मौलिक क्यों नहीं हो सकते और दूसरों को तुम्हारी नकल क्यों नहीं करने देते। ऐसा हुआ तो पहली वार इस देश में स्वतंत्रता के कुछ फूल खिलेंगे।[xxii]

     ...और आध्यात्मिकता किसी प्रकार की धर्मान्धता नहीं है। आध्यात्मिकता का अर्थ नहीं है कि तुम्हें हिंदु धर्म का प्रचार करना है या जैन धर्म का प्रचार करना है या इस्लाम का प्रचार करना है। आध्यात्मिकता का अर्थ इतना ही है कि तुम्हें सब धर्मों के मूलभूत तत्वों का प्रचार करना है, जो कि समान है। क्या प्रेम हिन्दू या मुसलमान हो सकता है, क्या करुणापूर्ण व्यक्ति ईसाई या यहूदी हो सकता है। प्रामाणिक आध्यात्मिकता के कोई विशेषण नहीं होंगे। यह सभी धर्मों के सिर्फ सार तत्वों की शिक्षा होगी। पत्रकारिता को अपनी सूची में उसको प्रथम स्थान देना चाहिए, वह पहले नम्बर पर होना चाहिए। राजनीति आखिरी नम्बर पर। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीति का प्रथम क्रमाँक है और अध्यात्म का अंतिम भी नहीं है।[xxiii]

     ...क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम इस पश्चिम से मुक्त हो जाएँ – हमारी अपनी शिक्षा हो, हमारी अपनी पत्रकारिता हो, हमारी अपनी सुगन्ध हो और हमारा अपना अर्थ हो। समय आ गया है, पत्रकारिता एक नए युग का आरम्भ बन सकती है। राजनीति को जितने पीछे ढकेलो, तुम्हारे अखबार के बिल्कुल अंतिम पृष्ठ पर। राजनीति हमारी आत्मा नहीं है। वह सबसे गंदा खेल है, जिसकी पत्रकारिता बहुत प्रसार कर रही है। राजनीति को इस बात का स्पष्ट अहसास दिलाना अत्यन्त आवश्यक है कि उसके पास कोई प्रज्ञा नहीं है कि उसे देश की नियति को नियंता नहीं बनना है और वह सिर्फ जनता की सेवक है। उसकी भूमिका सिर्फ कामकाज की है।...

     ...इन क्षणजीवी बातों को इतना महत्व क्यों देना। अध्यात्म का अर्थ है ऐसी बातों को महत्व देना, जिनका चिरस्थायी मूल्य है, जो जीवन को सदा मार्गदर्शन और प्रकाश दे सकते हैं, जो सनातन है, शाश्वत है। शाश्वत मूल्य आध्यात्मिकता का अंग है, क्षणिक मूल्य राजनीति का अंग है। राजनीति और अध्यात्म दो विपरीत ध्रुव हैं। राजनीति देश के कौने-कौने में धर्म को दबाने की कोशिश कर रही है। राजनीतिज्ञों को एकमात्र खतरा है धर्मों से, क्योंकि धर्म के कारण ही लोगों में अधिक प्रज्ञा जाग सकती है। राजनीतिज्ञ समस्याओँ को सुलझाना नहीं चाहते हैं, वे उन्हें पैदा करना चाहते हैं। वस्तुतः उनकी जिन्दगी ही इन समस्याओँ पर निर्भर करती है।...पत्रकारिता में बड़ी से बड़ी क्रांति जो होगी वह है अगर वह इस देश में एक अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा कर सके, जो राजनीति के द्वारा नियंत्रित न हो, लेकिन देश के प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो। पत्रकारिता का यह एक मूलभूत कार्य़ रहेगा कि जनता के सामने प्रज्ञावान लोगों को और उनकी प्रज्ञा को प्रकट करें।[xxiv]

     ...स्वस्थ पत्रकारिता से मतलब है ऐसी पत्रकारिता जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का पोषण करे – उसका शरीर, उसका मन, उसकी आत्मा, ऐसी पत्रकारिता जो बेहतर मनुष्यता को निर्मित करने में संलग्न है, सिर्फ घटनाओं का वृताँत इकट्ठी नहीं करती। पत्रकारिता सिर्फ एक समाचार माध्यम न हो, वह एक अच्छा साहित्य भी होना चाहिए, तभी वह स्वस्थ है। तुम्हें ऐसी चीज निर्मित करनी चाहिए जो कभी पुरानी नहीं होती, सदा नई रहती है। महान साहित्य का यही अर्थ है। दोस्तोवस्की के उपन्यास या लियो टॉलस्टाय, एन्टन चैखव, तुर्गनेव या रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास, ये तब तक अर्थपूर्ण रहेंगे, जब तक मनुष्यता रहेगी और सदा ताजा बने रहेंगे। तुम्हारी पत्रकारिता में कुछ वैसी गुणवत्ता होनी चाहिए।[xxv] यह गुणवत्ता लाई जा सकती है। तुम समाचार को महत्व दे सकते हो, लेकिन वह गौण होना चाहिए।...

     ...आवश्यक बात को जगह दो। तुम्हारे पास कवि हैं, चित्रकार हैं, लेखक हैं, आध्यात्मिक महामानव हैं। तुम उन सबको ला सकते हैं। राजनीति तीसरे पृष्ठ पर हो या चौथे पृष्ठ पर या शायद किसी भी पृष्ठ पर नहीं। तुमने इन राजनीतिज्ञों को इतना बड़ा बना दिया है, उनके बारे में अतिशयोक्ति कर दी है कि उसकी वजह से पूरे देश को परेशानी उठानी पड़ती है। पूरी दुनियाँ इन लोगों से परेशान है। इन लोगों के गुब्बारे में जो हवा भरी है, उसे निकालना होगा, उनका सही स्थान उन्हें दिखाना होगा। कोई व्यक्ति देश का राष्ट्रपति होगा, वह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। सवाल यह है कि वह एक अच्छा राष्ट्रपति है या नहीं, सवाल गुणवत्ता का है।...

     ...नकारात्मक को प्रकट करना ही है, लेकिन उस पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए। सारा ध्यान उस पर केन्द्रित नहीं करना चाहिए। मृत्यु सुनिश्चित है, लेकिन जीवन अधिक महत्वपूर्ण है। जीवन की चर्चा करो, जीवन को उत्सव बनाओ। लोगों को मृत्यु से अत्यधिक भयभीत मत करो। नकारात्मकता की मानसिकता को कुंठा मत बनाओ। माध्यम सिर्फ विधायक समाचार पर ही जिंदा नहीं रह सकता, वह गल्त होगा, अधूरा होगा। स्वस्थ पत्रकारिता का रुख लक्ष्य विधायक होना चाहिए, नकारात्मकता उस मंजिल तक पहुँचाने वाली सीढ़ी होनी चाहिए। लेकिन उस पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि उससे लोगों के मन में यह ख्याल पैदा हो जाता है कि जीवन सिर्फ इतना ही है। यह आत्मा का खतरनाक कैंसर है।[xxvi]

इस तरह स्वस्थ पत्रकारिता की दिशा में आध्यात्मिक पत्रकारिता निर्णायक भूमिका निभा सकती है। लेकिन इसको अमली जामा पहनाना आसान नहीं है। कई तरह की चुनौतियाँ इसके सामने खड़ी हैं।

 

 

संदर्भ -



[i]. ज्ञानेन्द्र रावत की पुस्तक प्रेस-प्रहार और प्रतिरोध , 2008, में ज्योतिर्मय, लोगों की आस्था सम्भाले धार्मिक पत्रकारिता की उपेक्षा क्यों, पृ.134

[ii]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, अपनों से अपनी बात-हमारा सन्तोषप्रद भूत और आशाजनक भविष्य, दिसम्बर1968, पृ.61

[iii]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा,अपनों से अपनी बात-हमारा सन्तोषप्रद भूत और आशाजनक भविष्य, दिसम्बर 1968, पृ.61

[iv]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्त्ता-शाखा संचालक यह करें, मई1964, पृ.63

[v]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा,अखण्ड ज्योति के परिजन इतना तो करें ही- हमारी धर्म निष्ठा कर्त्तव्य निष्ठा की ओर बढ़ चले, जून1966, पृ.45

[vi]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, अपनों से अपनी बात-हम अपना स्वरूप समझें और कर्त्तव्य सम्हालें, नवम्बर 1968, पृ.64

[vii]. ज्ञानेन्द्र रावत की पुस्तक प्रेस-प्रहार और प्रतिरोध , 2008, में ज्योतिर्मय, लोगों की आस्था सम्भाले धार्मिक पत्रकारिता की उपेक्षा क्यों, पृ.134

[viii]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, अखण्ड ज्योति क्यों पढे़ं?क्यों मँगायें?, नवम्बर, 1978, पृ.55

[ix]. ज्ञानेन्द्र रावत की पुस्तक प्रेस-प्रहार और प्रतिरोध , 2008, में ज्योतिर्मय, लोगों की आस्था सम्भाले धार्मिक पत्रकारिता की उपेक्षा क्यों, पृ.134-135

[x]. वही, पृ.135

[xi]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, ज्योति फिर भी बुझेगी नहीं, जनवरी1988, पृ.27,

[xii]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा,अपनों से अपनी बात प्राण परिजन यह कर गुजरें, अप्रैल 1988, पृ.60

[xiii]. ज्ञानेन्द्र रावत की पुस्तक प्रेस-प्रहार और प्रतिरोध , 2008, में ज्योतिर्मय, लोगों की आस्था सम्भाले धार्मिक पत्रकारिता की उपेक्षा क्यों, पृ.135

[xiv]. वही

[xv]. वही

[xvi]. वही, पृ. 135-136

[xvii]. वही, पृ. 136

[xviii]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, ज्योतिर्विज्ञान का दृश्य गणित, जनवरी1988, पृ.54

[xix]आचार्य, पं.श्रीराम शर्मा, अखण्ड ज्योति-क्यों पढें?क्यों मँगाये?, नवम्बर,1978, पृ.55

[xx].मीडिया विमर्श, वर्ष 1, अंक 4, जून-अगस्त, 2007

[xxi]. मीडिया विमर्श, वर्ष 1, अंक 4, जून-अगस्त, 2007

[xxii]. वही

[xxiii]. वही

[xxiv]. मीडिया विमर्श, वर्ष 1, अंक 4, जून-अगस्त, 2007

[xxv]. वही

[xxvi]. वही

आध्यात्मिक पत्रकारिता की सम्भावनाएं एवं इसका भविष्य

  The potential of Spiritual Journalism & its Future   भारतीय प्रिंट मीडिया में आध्यात्मिक पत्रकारिता का स्वरुप मुख्य धारा की पत्र-प...