भारतीय मीडिया के संदर्भ में
अध्यात्म – अर्थ एवं परिभाषा -
अध्यात्म बहुत ही व्यापक शब्द
है, जिसको एक परिभाषा में बाँधना कठिन है। शाब्दिक रुप में यह अधि और आत्म
शब्द से मिलकर बना है, जिसका अर्थ हुआ, आत्मा की ओर मुड़ना एवं आत्मा का अध्ययन। श्रीमद्भगवदगीता
में, स्वभावो अध्यात्म उच्यते कहा गया है, अर्थात्, स्वभाव ही अध्यात्म है।
इस तरह अध्यात्म को अपने स्व का, अपने अस्तित्व का अनुभव एवं इसका
अध्ययन कह सकते हैं, जिसके दायरे में अपना समग्र व्यक्तित्व एवं समग्र जीवन आता
है।
अंग्रेजी के शब्द SPIRIT में भी यही भाव
निहित है। इसका अभिप्राय व्यक्तित्व की पावन एवं अनश्वर सत्ता से है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ
रिलीजन में अध्यात्म का अर्थ स्पष्ट किया है – व्यक्ति
का गहनतम केन्द्र और परमसत्य का अनुभव (Deepest
center of the person and experience of ultimate reality)।
इस तरह अध्यात्म का अर्थ आत्मा का अध्ययन और इसका अनावरण है। मन
एवं व्यक्तित्व का अध्ययन तो आधुनिक मनोविज्ञान भी करता है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ हैं। इसके अंतर्गत
अपना वजूद देह मन की जटिल संरचना और समाज-पर्यावरण के साथ इसकी अंतर्क्रिया से
उपजे व्यक्तित्व तक सीमित रहता है।
इस सीमा के पार अध्यात्म अपने परामनोवैज्ञानिक एवं पारलौकिक
स्वरुप के साथ व्यक्तित्व का समग्र अध्ययन करता है। इसीलिए अध्यात्म को उच्चस्तरीय
मनोविज्ञान भी कहा गया है। देह मन के साथ यह व्यक्तित्व के उस सार तत्व से भी
वास्ता रखता है, जिसे यह इनका आदिकारण
मानता है और इनसे जुड़ी विकृतियों का समाधान भी।
इस तरह अध्यात्म एक समग्र जीवन दृष्टि का नाम है, जिसमें मात्र इस देह
व मन की चेतन और अचेतन पर्तें ही शामिल नहीं हैं, जिन्हें आज का मनोवैज्ञानिक
व्यक्तित्व के विभिन्न स्तर मानता है, बल्कि इसके दायरे में मनोवैज्ञानिकों के लिए
पहेली बना सुपरचेतन मन भी है, जो कि भारतीय अध्यात्म परम्परा में
व्यक्तित्व की दिव्यता का आधार एवं आगार है।
इसीलिए आध्यात्मिक दृष्टि में जीवन का लक्ष्य आत्मजागरण, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरप्राप्ति
जैसी स्थिति है, जिनसे उपलब्ध पूर्णता की अवस्था को समाधि,
कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष, स्थितप्रज्ञता, पूर्णता जैसे शब्दों से
परिभाषित किया गया है। इस पृष्ठभूमि में अध्यात्म की एक प्रचलित परिभाषा है
- अंतर्निहित दिव्यता या देवत्व का जागरण और इसकी अभिव्यक्ति। यह प्रक्रिया खुद को
जानने के साथ शुरु होती है, अपनी अंतर्रात्मा से संपर्क
साधने और उस सर्वव्यापी सत्ता के साथ जुड़ने के साथ आगे बढ़ती है।
आचार्य पं.श्री रामशर्मा के शब्दों में अध्यात्म
विशुद्ध रुप से मनःशास्त्र है। इसके चेतन, अचेतन और अतिचेतन तीन
स्तर आते हैं। व्यवहार और बुद्धि सचेतन हैं। आदतें अचेतन और
उत्कृष्टता अतिचेतनता के प्रतीक हैं। व्यवहारिक रुप में अध्यात्म का
अर्थ ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता, आदर्शों की पराकाष्ठा है।
In the words of Swami Vivekananda, the greatest feature of human
life is that it is Atman or Self in its true form. In fact, Swami
Vivekananda explains spirituality as the essence of religion,
saying that self- Religion as a science, as a study is the
greatest and healthiest exercise that the human mind can have.
This pursuit of the Infinite, this struggle to grasp the
Infinite, this effort to get beyond the limitations of the
sense – out of matter, as it were –and to evolve the spiritual
man – this striving day and night to make the Infinite one with
our being – this struggle itself is the grandest and most
glorious that man can make……It is the greatest motive power
that moves the human mind. No other ideal can put us the same
mass of energy as the spiritual. So far as human history goes,
it is obvious to all of us that this has been the case and that
its powers are not dead. (CW-2,66)
Further Swamiji elaborates - I don’t deny that men, on
utilitarian grounds, can be very good and moral. There have been many great men
in this world perfectly sound, moral and good, simply on utilitarian grounds.
But the world movers, men who brings, as it were a mass of magnetism into the
world, whose spirit works in hundreds and in thousands, whose life ignites
others with a spiritual fire – such men, we always find, have the spiritual background. Their
motivating power came from religion. Religion is the greatest motive power
for realizing the infinite energy which is the birthright and nature of
every man. In building up character, in making for everything that is
good and great, in bringing peace to others and peace to one’s own self,
religion is the highest motive power and, therefore, ought to be studied from
that standpoint.(CW-2,67)Take off
religion from human society, what remain? Nothing but a forest of brutes.
In these thousands of years of struggle for truth and the benefit of mankind,
we have scarcely made the least appreciable advance. But mankind has made
gigantic advance in knowledge. The highest utility of this progress lies not in
the comforts that it brings, but in manufacturing a god out of this animal man.
Then, with knowledge, naturally comes bliss. (CW-2,209-10)
To Swamiji Religion is something sacred which makes a
person explore and get in touch with his deepest aspect and get in tune
with the Ultimate reality. Religion is the search after the highest
ideal. (CW-2, 46) Religion is the manifestation of the Divinity already
in man. (CW-4,358) Religion is not in doctrines, in dogmas, nor in
intellectual arguments; it is being and becoming, it is realization.
(CW-2, 43)Religion is the realization of spirit as spirit.(CW-1,469) Religion
belongs to the super sensuous and not to the sense plane. (CW-3,1) Real
religion begins where this little universe ends. (CW-1, 97)Religion is a
question of being and becoming, not of believing. (CW-4,216) All the
religions, from the lowest fetishism to the highest absolutism, mean so many
attempts of the human soul to grasp and realize the Infinite. (CW-1, 17)
In
this way in the words of Swami Vivekananda, each soul is potentially
divine. The goal is to manifest this divinity within, by controlling nature,
external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control,
or philosophy – by one or more or all of these – and be free. This is the whole
of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or
forms, are but secondary details. (CW-1,257)It is in line with his master Sri
Ramakrishna, who used to say, “Having come to this world, the first duty
is to realize God and everything else will follow afterwards.” True
religion to Swamiji is the one with practical results. The basic aim of
religion is to bring peace to man. It is not wise thing for one to suffer in
this life so that one can be happy in the next. One must be happy here and now.
Any religion that can bring about that is the true religion for humanity.
आचार्य पं.श्री रामशर्माके अनुसार, मनुष्य में जहाँ तक शारीरिक-मानसिक स्तर की
अनेकों विशेषताएँ हैं, वहीं उसकी वरिष्ठता इस आधार पर भी है कि उसमें अंतरात्मा
कहा जाने वाला एक विशेष तत्व पाया जाता है। अध्यात्म शक्ति को किन्हीं शब्दों में
चरित्रबल, मानसिक बल अथवा आत्मबल भी कहते हैं।संसार का सबसे बड़ा व्यक्ति
वह है जो आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न है। प्रकारान्तर में अध्यात्म विराट सत्ता से
संपर्क करने, संवाद साधने व एकाकार होने की प्रक्रिया है। श्री अरविंद के शब्दों में –
मनुष्य अपनी उच्चतम, विशालतम और पूर्णतम सत्ता को पाने का प्रयत्न करता है
और जिस क्षण वह उसके साथ जरा भी सम्पर्क प्राप्त कर लेता है उसके अन्दर की
वह सत्ता विश्वगत भव्य, शुभ एवं सौन्दर्य़ की किसी महान् आत्मा और सत्ता के
साथ एकाकार होते दिखाई देती है। इस आत्मा एवं सत्ता को ही हम भगवान का नाम
देते हैं।(In the words of Sri Aurobindo - Man tries to get his
highest, grandest and absolute power and the moment he gets even
a little contact with it, that power within seems getting united
with the grand, auspicious and beautiful Universal power. We
name this soul or existence by the name of God.)
आचार्यश्री के शब्दों में अध्यात्म को अपना कर ही मनुष्य सच्चे अर्थों में
मनुष्य बनता और मनुष्यता के आवश्यक सदगुणों से सम्पन्न होता है। आध्यात्मिकता ही
वह एकमात्र मार्ग है, जिस पर चलते हुए आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर प्राप्त
होता है।नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, लघु से महान् बनने का एक
ही उपाय है कि अपनी तुच्छताओं, संकीर्णताओं, दुर्बलताओं की बेडियाँ काट डाली जाएं
और महानता के उन्मुक्त आकाश में विचरण किया जाए। आज आवश्यकता इस बात की है कि
अध्यात्म के वास्तविक स्वरुप से जनसाधारण को परिचित कराया जाए।
इस तरह अध्यात्म को
किसी एक परिभाषा में बाँधना कठिन है। इसको उतने ही विविध रुपों में परिभाषित एवं
प्रतिपादित किया जा सकता है, जितना की जीवन की विविधता है। यदि मूल्यों की दृष्टि
से विचार करना हो, तो अध्यात्म चेतना के परिष्कार का विज्ञान विधान है। कोई भी
विधि जिससे मानवीय व्यक्तित्व गरिमापूर्ण बने, उसके चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार का
परिमार्जन हो, उसमें संयम, सहिष्णुता, उदारता, सेवा जैसे सद्गुणों का विकास हो, वह
अध्यात्म है।
एक गुह्यवादी की भाषा में, अपनी खोज
में निकल पड़े मुसाफिर की राह एवं मंजिल है अध्यात्म। जब लक्ष्य अपनी चेतना का
स्रोत समझ आ जाए तो अपने उत्स, केंद्र की यात्रा है अध्यात्म। थोड़ा एडवेंचर के भाव से कहें तो यह
अपनी चेतना के शिखर का आरोहण है। अध्यात्म स्वयं को समग्र रुप से जानने की
प्रक्रिया है। विज्ञजनों की बात मानें तो यह जीवन पहेली की मास्टर-की है।
आश्चर्य़ नहीं कि सभी विचारकों-दार्शनिकों-मनीषियों ने चाहे वे पूर्व के रहे हों या
पश्चिम के, जीवन
के निचोड़ रुप में एक ही बात कही – आत्मानम् विद्, नो दाईसेल्फ, अर्थात पहले, खुद को जानो, स्वयं को पहचानो। और स्वयं को जानना,
समस्त ज्ञान का आधार है।
इस
तरह अध्यात्म आत्मानुसंधान का पथ है, एक अंतर्यात्रा है। अध्यात्म उस आस्था
का नाम है जो जीवन का केंद्र अपने अंदर मानती है और जीवन की हर
यहाँ धर्म और
अध्यात्म के अन्तर्सम्बन्ध और इनके बीच के अंतर को भी स्पष्ट करना उचित होगा,
क्योंकि दोनों का प्रयोग प्रायः एक साथ
किया जाता है और दोनों को एक समझने की भूल होती रहती है।
धर्म बनाम् अध्यात्म
धर्म शब्द आज बदनाम
हो चला है। धर्म के नाम पर यदा कदा उठने वाले क्लह-कलेश, वाद-विवाद, दंगे-फसाद,
नरसंहार एवं आतंकी घटनाओं ने इस पावन शब्द के प्रति प्रबुद्ध ह्दय में एक अज्ञात
सा भय, संशय एवं वितृष्णा का भाव पैदा कर दिया है, जबकि धर्म का मूल भाव बहुत पावन
एवं उदात्त है।
व्यापक अर्थों में
धर्म का अर्थ धारण करने योग्य उन गुणों से है, जो
व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुरुप उसके सर्वाँगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करे और
उसे पूर्णता की ओर ले जाए। भारत के पहले परमाणु विज्ञानी एवं वैशेषिक दर्शन के जनक
महर्षि कणाद के शब्दों में, यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः सः धर्मअर्थात्
जिससे लौकिक कल्याण तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे धर्म कहते हैं।भारतीय
संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के रुप में इसकी यही अवधारणा प्रस्तुत है।
जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने वाले चार पुरुषार्थों में इसे प्रमुख स्थान प्राप्त
है। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा के शब्दों में, बिना धर्म के नीतिमत्ता व
संवेदना को विकसित किए बिना वह अर्थोपार्जन व उसका सुनियोजन नहीं कर सकता, न ही
परिष्कृत काम, सुख की सिद्धि ही कर सता है।
आचार्य मनु ने धर्म के दस लक्षण गनाए हैं – धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच,
इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्यम और अक्रोध।पं.श्री रामशर्मा आचार्यके
शब्दों में, शास्त्रों में धर्म के कई लक्षण गिनाए गए हैं, वर्तमान संदर्भ में
जिसके दस लक्षण कहे जा सकते हैं – सत्य, विवेक, संयम, कर्तव्य परायणता, अनुशासन,
आदर्शनिष्ठा-व्रतशीलता, स्नेह-सौजन्य, पराक्रम-पुरुषार्थ, सहकारिता और
परमार्थ-उदारता।
एन्साइक्लोपीडिया ऑफ
रिलीजन के अनुसार रिलीजन का अर्थ चरम अनुभूति से है।
धर्म की इस चरम उपलब्धि तक पहुँचने के विविध मार्ग के अनुरुप हिंदु, मुस्लिम,
सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी जैसे धर्मों के विविध रुप सामने आते हैं। धर्म की प्रमुख विशेषताएँ व
संरचना के अनिवार्य अंग अवयव हैं –परम्परा (Traditionalism), मिथक एवं प्रतीक (Myth &
Symbol), मुक्ति की अवधारणा (concept of
salvation), पवित्र तीर्थ स्थल एव वस्तुएं (Sacred
places and objects), कर्मकाण्ड(Sacred actions
(Rituals)), धर्मग्रंथ (Sacred writings), धर्म समुदाय (Sacred community)और धार्मिक अनुभूतियाँ (Sacred experience).
आचार्य श्रीराम शर्मा के शब्दों में धर्म
को संक्षेप में तीन अंगों में समेटा जा सकता है – नीति शास्त्र, आस्तिकता प्रधान
दर्शन और अध्यात्म। इनमें दर्शन पक्ष उस धर्म के अनुसार इस जगत, परमसत्ता,
मनुष्य जीवन के स्वरुप, लक्ष्य आदि पर विचार करता है। नीति शास्त्र उस
लक्ष्य की ओर बढ़ने के नीति-नियम, विधि-निषेध आदि का मार्गदर्शन करता है। और
कर्मकाण्ड पक्ष पूजा-पाठ एवं साधना पद्वति आदि का निर्धारण करता है।
देश, काल, परिस्थिति के अनुरुप हर धर्म के आचार शास्त्र, कर्मकाण्ड
एवं विश्वास के रुप में वाह्य भिन्नता हो सकती है। लेकिन अंततः सभी धर्म एक ही
सत्य की ओर ले जाते हैं। अपने वाहरी स्वरुप के प्रति दुराग्रह ही धर्म के नाम पर
तमाम तरह के विवादों का कारण बनते हैं। इसी कारण डॉ. एस. राधाकृष्णन के
शब्दों में, सैदाँतिक तौर पर सार्वभौम दृष्टि का प्रतिपादन करते हुए भी व्यवहारिक
रुप से धर्मों में सार्वभौम दृष्टि का अभाव रहता है।यद्यपि वे कहते हैं कि सब
मनुष्य चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, मत, रंग के हों, भगवान की नजर में एक समान
हैं। लेकिन कई धर्म संस्थाएं अपने मत-विश्वास को लेकर कट्टर, असहिष्णु व उग्र हो
जाती हैं। ऐसे में धर्म राष्ट्र-राज्य की तरह व्यवहार करने लगता है।
वास्तव में धर्म का अनुभूतिपरक उच्चतर स्वरुप अध्यात्म के क्षेत्र में
आता है। धर्म और अध्यात्म के इस अनन्य सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए पं.श्री
रामशर्मा आचार्य धर्म के तीन अंग बताते हैं – धार्मिकता, आस्तिकता और
आध्यात्मिकता। धार्मिकता अर्थात् नीति नियम और कर्मकाण्ड, जिसका निष्ठा
पूर्वक अभ्यास करते हुए व्यक्ति आस्तिकता अर्थात् अपनी दैवीय प्रकृति एवं
असीम संभावनाओं के बोध को पाता है। इसी के साथ वह अपनी निम्न प्रकृति के क्रमिक
रुपांतरण के साथ आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है। व्यवहारिक रुप में
धार्मिकता का अर्थ कर्तव्यपरायण्ता है, आस्तिकता का
अर्थ ईश्वरी सत्ता पर विश्वास है, जो कि नैतिकता का मेरुदंड है और आध्यात्मिकता
का अर्थ आत्म विश्वास, आत्म निष्ठा और विस्तार से है।
इस तरह धर्म का जो परिष्कृत रुप या चरम स्वरुप है वह अध्यात्म है।
प्रायः अध्यात्म का उभार धर्म के गर्भ से ही होता रहा है। लेकिन धर्म के स्वतंत्र
भी अध्यात्म का विकास हो सकता है। बिना किसी संस्थागत धर्म के किसी मत, विश्वास
एवं मार्ग का अनुकरण किए भी व्यक्ति अपनी अंतःप्रेरणा, विवेक एवं प्रयोगधर्मिता के
आधार पर अपने आत्मिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है। अतः अध्यात्म का विकास धर्म
के अंदर या बाहर कहीं भी हो सकता है।
भारतीय मीडिया में धर्म, अध्यात्म एवं आध्यात्मिक पत्रकारिता -
भारतीय मीडिया में
प्रायः धर्म और अध्यात्म को साथ-साथ में उपयोग करते देखा जा सकता है। हिंदी समाचार
पत्रों में धर्म क्षेत्रे,धर्म कर्म,धर्म मार्ग,धर्म दर्शन, धर्म-अध्यात्म जैसे
स्तम्भों के तहत इसी तथ्य को देखा जा सकता है। इसी तरह अंग्रेजी के पत्रों में
रिलीजन, स्पीरिचुअल एथीस्ट, स्पीकिंग ट्री में भी इस तथ्य को समझा जा सकता है। इसी
तरह भारतीय टीवी मीडिया में विभिन्न आध्यात्मिक एवं धार्मिक चैनलों, यथा– आस्था,
संस्कार, साधना, दिव्य, जी जागरण, दिशा, कात्यायनी, पारस, सालेम, गोड टीवी आदि, के
रुप में इसी तथ्य को देखा जा सकता है, जिनकी संख्या इस समय तीन दर्जन से अधिक
है।इसके साथ ही स्पीकिंग ट्री जैसी भारत की पहली आध्यात्मिक सोशल नेटवर्क साइट
उल्लेखनीय है।
इस तरह भारतीय
मीडिया में अध्यात्म शब्द अभी नया है, धार्मिक पत्रकारिता के रुप में अधिक चर्चा
होती रही है, विशेषकर मीडिया पाठ्यक्रम के संदर्भ में। जितने भी लेख पाठ्य
पुस्तकों में उपलब्ध हैं, और पत्रकारिता के विभिन्न रुपों की जब चर्चा हुई है, तो
धार्मिक पत्रकारिता की ही चर्चा हुई है। जैसे कि हिंदी पत्रकारिता के विविध आयाम
(वेद प्रताप वैदिक), भारत में हिंदी पत्रकारिता (डॉ. रमेश जैन), पत्रकारिता –
परिवेश और प्रवृत्तियाँ (डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय) आदि।
लेकिन स्थिति
तीव्रती से बदल रही है। धर्म का वर्तमान स्वरुप विकृत हो चला है। धर्म के नाम पर
लड़ाई-झगड़ा, दंग-फसाद, नरसंहार और आतंकवाद जैसी घटनाओं के चलते प्रबुद्ध वर्ग का
प्रचलित अर्थों में धर्म शब्द से मोहभंग हो चला है। इसकी जगह वह अध्यात्म की ओर
उन्मुख हो चुका है। पाठकों के इसी रुझान को देखते हुए, मीडिया में अध्यात्म से
जुड़ी सामग्री का स्पेस क्रमशः बढ़ रहा है। आध्यात्मिक स्तम्भों के नाम भी
इसी परिवर्तन को दर्शा रहे हैं, यथा– अंतर्यात्रा, अंतर्वाणी, अंतर्मन, अंतर्प्रेरणा,
सतसंग, मनसा-वाचा-कर्मणा, इनर वोआइस आदि। यही स्थिति इलैक्ट्रॉनिक एवं वेब
माध्यमों में उपयुक्त हो रही शब्दावलियों यथा – आस्था, साधना, संस्कार, श्रद्धा,
प्रज्ञा, दिव्या, अध्यात्म, प्रार्थना, सोह्म, ब्लेसिंग, एवं साइंटिफिक
स्प्रिचुअलिटी, ब्लिस, कांशिएसनेस, डिविनिटी, माइंडफुलनेस आदि के आधार
पर देखी जा सकती है, जोआध्यात्मिक पत्रकारिता के चलन की शुरुआत दर्शाते
हैं।हालांकि अभी यह प्राथमिक अवस्था में है, लेकिन इसका विकास तीव्रता से हो रहा
है।
इस तरह समय की माँग
धर्म के परिष्कृत रुप की है, जो इंसान को बेहतर इंसान बनाए, पशुता से ऊपर उठाकर
सच्चा इंसान बनाए और उससे भी आगे देवत्व की राह दिखाए। इसके लिए धर्म के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक
है। बिना विज्ञान के धर्म को अंधविश्वास में बदलते देर नहीं लगती। अतः आज आवश्यकता
धर्म से जुड़ी मान्यताओं, प्रथाओं, परम्परा, कर्मकाण्डों के वैज्ञानिक विवेचन की
है, साथ ही लोकजीवन में इनकी व्यवहारिक उपयोगिता सिद्ध करने की है। आध्यात्मिक
पत्रकारिता में इन सभी तत्वों का समावेश है। हर धर्म को जोड़ने वाले सार्वभौम तत्व
इसके आधार हैं। वहीं अध्यात्म की ओर ले जाने वाला धर्म का शाश्वत स्वरुप इसका पथ
है और समाज एवं मानवता को जोड़ने वाला प्रगतिशील स्वरुप इसका स्वभाव है। धर्म के
स्वतंत्र भी इसका अपना पथ है, जो विवेक, स्वतंत्र चिन्तन एवं अंतर्प्रज्ञा पर
आधारित है।
संक्षेप में व्यक्ति
को उत्कृष्टता के शिखर एवं पूर्णता की ढ़गर तक ले जाने वाला प्रत्येक विज्ञान,
विधान, समाधान इसके दायरे में आता है। यह आध्यात्मिक पत्रकारिता आज की माँग है, जो
समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, टीवी चैनलों, पारम्परिक माध्यम एवं न्यू मीडिया
के माध्यम से अपनी साकारात्मक भूमिका निभाने में सक्षम-समर्थ है।