Challenges associated with Spiritual
Journalism
आध्यात्मिक पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियाँ
सैद्धान्तिक तौर पर यह स्पष्ट होते हुए भी कि अध्यात्म मानवीय मूल्यों
का आदि स्रोत है और अध्यात्म में समस्त समस्याओँ का समाधान निहित है, व्यवहारिक
स्तर पर आध्यात्मिक पत्रकारिता का स्वरुप तमाम चुनौतियों से भरा हुआ है।
पत्रकारिता की मुख्यधारा में अभी आध्यात्मिक पत्रकारिता को शिशु अवस्था में कहें
तो अतिश्योक्ति न होगी, क्योंकि पत्रकारों का एक वर्ग अभी भी इसके स्वरुप को लेकर
बहुत आश्वस्त नहीं हैं। पुस्तकों के अवलोकन से भी स्पष्ट हुआ कि हिंदी व अंग्रेजी
की पाठय पुस्तकों में पत्रकारिता के वर्गीकरण में धार्मिक पत्रकारिता भर का नाम
मिला है। अपवाद स्वरुप एक दो पुस्तकों में आध्यात्मिक पत्रकारिता का नाम मिला भी
तो इसके स्वरुप को लेकर कोई वर्णन विवेचन नहीं है।
लेकिन इंटरनेट साइट्स खंगालने पर पता चलता है
कि स्प्रिचुअल जर्नलिज्म का दौर शुरु हो चुका है। नए युग की वैचारिक लहर के
रुप में इसका आगाज हो चुका है। नए युग की पत्रकारिता के रुप में इसको स्थान मिल
चुका है। अध्यात्म विषयक पत्रिकाओँ के विश्लेषण से भी स्पष्ट होता है कि काल के
गर्भ में झाँकने की क्षमता रखने बाले युगऋषि एवं युग मनीषी इसका शुभारम्भ 20 वीं
सदी में ही कर चुके हैं। पत्रिका की विषय वस्तु एवं विशेषाँकों के स्वरुप को देखते
हुए, 1940 से प्रकाशित अखण्ड ज्योति पत्रिका को इस वर्ग में रखा जा सकता है। इसी
तरह 1996 से प्रकाशित हो रही लाइफ पॉजिटिव को इसमें शामिल किया जा सकता है।
कल्याण अपने स्तर से इस दिशा में तमाम सीमाओँ के वावजूद 1926 से ही प्रयासरत है।
वेदान्त केसरी, प्रबुद्ध भारत व योगादा सतसंग जैसी आध्यात्मिक पत्रिकाएं तो इनसे
भी पूर्व अपने सात्विक अभियान में सक्रिय हैं। अन्य आध्यात्मिक पत्रिकाएँ भी इसके
शुभारम्भ का संकेत देती हैं। ये सभी प्रायः किसी आध्यात्मिक संस्थान द्वारा
प्रेरित-संचालित हैं। मुख्यधारा की पत्रकारिता में अभी इसका सुस्पष्ट स्थान बनना
शेष है।
हालाँकि धर्म-अध्यात्म के प्रति रुचि के चलते
समाचार-पत्रों में दैनिक स्तम्भों का प्रारम्भ होना और फिर इन पर साप्ताहिक
परिशिष्टों का चलन इसे युग की आवश्यकता के रुप में स्थापित करते हैं। इंडियन
एक्सप्रेस, द हिंदु, इंडिया टुडे, आउटलुक जैसी मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं में
इसके लिए सर्वथा स्थान का अभाव आश्चर्य का विषय है। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा स्पीकिंग ट्री
नाम से 8 पृष्ठीय अध्यात्म विषयक विशिष्ट स्पलीमेंट का अभिनव प्रयोग आध्यात्मिक
पत्रकारिता के प्रति सजग दृष्टिकोण का परिचायक है। जबकि मुख्यधारा के पत्रों एवं
पत्रिकाओँ में अध्यात्म की उपेक्षा इनकी प्रगितिशीलता एवं प्रोफेशनलिज्म पर
प्रश्नचिन्ह लगाती है।
कुल मिलाकर भारतीय प्रिंट मीडिया में
आध्यात्मिक पत्रकारिता अपना रुपाकार ले रही है, हालाँकि मुख्यधारा की पत्रकारिता
और विभिन्न धार्मिक-आध्यात्मिक संगठनों द्वारा चलायी जा रही पत्रकारिता में एक
मौलिक अंतर करना उचित होगा कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के लिए यह प्रकाशन व्यवसाय
का एक अंग है, जबकि आध्यात्मिक संगठनों के लिए यह एक पावन धर्म कार्य और एक मिशन
है, जिसे वे सेवा भाव से करते हैं। यही इलैक्ट्रॉनिक एवं वेब माध्यम से संप्रेषित
हो रही आध्यात्मिक पत्रकारिता के बारे में कहा जा सकता है। जो भी हो आध्यात्मिक
पत्रकारिता की डगर फिलहाल चुनौतियों से भरी है। विशेषज्ञों के मत में अभी तक यह
उपेक्षा की शिकार रही है।
उपेक्षा की शिकार
लम्बे अर्से से धर्म अध्यात्म की कवरेज कर
रहे वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय के शब्दों में - कहना गल्त न होगा कि एक बड़ा वर्ग
होने के बावजूद मीडिया की मुख्यधारा में धर्म की रिपोर्टिंग की लगातार अनदेखी की
जा रही है। पड़ताल करने पर पता चलता है कि धर्म पर की जाने वाली रिपोर्टिंग
धार्मिक आस्था व राजनीतिक टकराव की स्थिति या इससे जुड़ी घटनाओँ, घोटालों व
परम्पराओं तक ही सीमित है।[i]
जहाँ तक मेरी जानकारी है, सिर्फ एक अखबार को छोड़ अन्य किसी में धर्म सम्पादक नहीं
है। ज्यादातर पत्रकारों का मानना है कि उनका धार्मिक जुड़ाव तो है, पर व्यक्तिगत
रुप से वे धर्मनिरपेक्ष हैं। आस्था के बारे में लिखना इस विचार के खिलाफ है और यह
उनके गैर-पेशेवर रवैये को दर्शाता है।[ii]
माना धर्म व पत्रकारिता दोनों एक दूसरे से
जुदा हैं, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है। दोनों ही हमारे जीवन की राह की
व्याख्या करते हैं। दोनों बेहतर अर्थपूर्ण जीवन बिताने का दिशा-निर्देश मुहैया
कराते हैं। दोनों सत्य की ओर ले जाते हैं।[iii]
इन सबके बावजूद धर्म की अनदेखी इस बजह से नहीं होती कि पत्रकार धर्मनिरपेक्ष,
अनभिज्ञ अथवा पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, बल्कि इसलिए क्योंकि पत्रकारिता का धर्म ही
ऐसा है। उसका दायरा यहाँ अभी तक सीमित है। पर एक ऐसी चीज है, जो हर समुदाय के
लोगों को प्रभावित करती है, कि अनदेखी करना समाज की नब्ज से नजरें हटाना है।[iv]
पाठकों की धार्मिक रुचि एवं आध्यात्मिक भूख की उपेक्षा करती हुई पत्रिकाएं शायद
इसी अनदेखी की शिकार हैं। यह तर्क कि पाठक की रुचि नहीं है, गले नहीं उतरता।
सच तो यह है कि समाज को विचार और संस्कार
देने की दृष्टि से पत्रकारिता की जब भी चर्चा चलती है तो धार्मिक-आध्यात्मिक
पत्रकारिता की अक्सर उपेक्षा कर दी जाती है। कारण शायद यह है कि पत्रकारिता का
अर्थ व्यवसायिकता तक ही सीमित मान लिया गया है। रंग-बिरंगे और सजे संवरे अंक
निकालने तथा उपभोक्ता सामग्री की तरह बेची जाने वाली पत्रिकाओँ से भी मानदण्ड तय
किए जाएं तो धार्मिक पत्रिकाएँ निश्चित ही गिनने लायक नहीं लगती। उन्हें पत्रिकाएँ
ही नहीं कहा जा सकता। लेकिन विचार और संस्कार भी पत्रकारिता की कोई कसौटी है तो
धार्मिक पत्रिकाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अपने ढंग से इन्होंने बहुत काम
किया है।[v]
हाँ, व्यापक स्वीकार्यता के लिए उन्हें नए कलेवर में जमाने के साथ चलना होगा, जो
कि दूसरी अहम चुनौती है।
ज़माने के साथ चलने की जरुरत
समय की माँग को देखते हुए आध्यात्मिक पत्रिकाओं को नए कलेवर में ढालना
होगा, क्योंकि साज सज्जा और मुद्रण की दृष्टि से इस विषय की अधिकाँश पत्रिकाओं की
दशा सोचनीय है। रंगीन कलेवर में उपयुक्त कागज, प्रिंटिंग एवं साज-सज्जा के साथ
प्रस्तुत होने पर निश्चित रुप से ये पत्रिकाएँ अधिक स्वीकार्य होंगी। क्योंकि
पत्रकारिता में यह पैकेजिंग का जमाना है, कुछ तो इसके अनुरुप ढालना होगा। लेकिन
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है गंभीर विचारों एवं समय सापेक्ष सामग्री का अभाव।
नया पाठक पढ़ा लिखा है, वैज्ञानिक युग की हवा
में साँस ले रहा है। उसकी बुद्धि तर्कों से भरी हुई है। किसी भी बात को वह बाबा
बाक्यम् प्रमाणम् के रुप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। धर्म अध्यात्म के
मात्र आप्त वचनों एवं शास्त्र प्रमाणों भर से काम चलने वाला नहीं। हर विचार को
तर्क, तथ्य एवं प्रमाण की कसौटी पर कस कर प्रस्तुत करना होगा। वैज्ञानिक युग शास्त्र
पुराणों की समयानुकूल व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरणमाँगता है। अध्यात्मपरक
पत्रिकाओँ एवं पत्रकारों को इस कसौटी पर कसने की चुनौती को
स्वीकार करना होगा।
वास्तव में हमारे धार्मिक पत्रों में प्रायः
गंभीर चिंतन तथा समय सापेक्ष विवेचन न होने से ही भटकाव की स्थिति पैदा हुई है।
उनकी सामग्री ही नहीं साज-सज्जा और मुद्रण भी प्रायः समय से पिछड़ा हुआ है।
वैज्ञानिक चकाचौंध में धर्म, संस्कृति तथा नैतिकता को नए संदर्भ और नए आयाम चाहिए।[vi]
धर्म अध्यात्म के शाश्वत सिद्धान्तों की समयानुकूल व्याख्या अपेक्षित है।
अतः धर्म को विज्ञान की कसौटी पर कसने के लिए
तैयार होना होगा। आध्यात्मिक सिद्धान्तों की समयानुकुल, युगानुकूल व्याख्या करनी
होगी। वैज्ञानिक अध्यात्म समय की माँग है। धर्म का प्रगतिशील स्वरुप एवं अध्यात्म
का व्यवहारिक स्वरुप युग की आवश्यकता है। पत्रकारिता के माध्यम से इनको प्रस्तुत
कर सर्वग्राह्य बनाया जा सकेगा। इस दिशा में कुछ आध्यात्मिक पत्रिकाएं एवं समाचार
पत्र स्तुत्य कार्य़ कर रहे हैं। लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए ये प्रयास
पर्याप्त नहीं हैं। हालाँकि बाजार की दृष्टि से देखें तो आध्यात्मिक पत्रकारिता का
बाजार गर्म है।
विशेषज्ञों की राय में, वैसे व्यवसाय की
दृष्टि से भी धार्मिक पत्रकारिता को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। पूरे
देश में विभिन्न विषयों की लगभग 20 हजार पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं,
जिनमें धार्मिक पत्रिकाओँ की संख्या डेढ़ हजार के आसपास है, जो अनुपात की दृष्टि
से कम नहीं है। सौ से अधिक पत्रिकाओं की दस हजार से अधिक प्रतियाँ छपती और बिकती
हैं। कल्याण और अखण्ड ज्योति जैसी पत्रिकाओँ की प्रकाशन संख्या तो लाखों में है।
इस तरह व्यावसायिक पत्रकारिता का अर्थ एक खास किस्म की व्यावसायिकता और विक्रय
तन्त्र नहीं है तो इस लिहाज से भी धार्मिक पत्रिकाओँ को यूँ ही नजरन्दाज नहीं किया
जा सकता।[vii]
आध्यात्मिक पत्रकारिता जीवन के हर क्षेत्र
में सकारात्मक विचारों की वाहक कैसे बने, इसके लिए इसके सम्यक स्वरुप का विचार
आवश्यक है।
आध्यात्मिक पत्रकारों को तैयार करने की चुनौती -
आध्यात्मिक
पत्रकारिता का अधिक से अधिक प्रसार हो इसके लिए ऐसे पत्रकार तैयार करने होंगे जो
आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन में उतारने के लिए प्रतिबद्ध हो। क्योंकि यह
पत्रकारिता का ऐसा क्षेत्र है जिसका निर्वाह मात्र पद-पैसा, सत्ता और ग्लैमर की
चाह रखने वाले उथली मानसिकता के व्यक्ति नहीं कर सकते। इसके लिए जीवन में
उच्चस्तरीय मूल्यों का धारण करने का जज्बा रखने वाले दुस्साहसी युवाओं की जरुरत
है। आत्मानुसंधान में रुचि, तप-साधना में ढलने-गलने वाले सेवा भावी सत्पात्र ही इसकी
चुनौती का निर्वाह कर पाएंगे।आध्यात्मिक जीवन शैली का वरण करने वालेसत्पात्र
संस्कारित छात्र-छात्राओं का मिलना उतना सरल नहीं।फिर इनके प्रशिक्षण के लिए
पाठ्यक्रम से लेकर योग्य शिक्षक एवं उचित शिक्षण व्यवस्था कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।
क्या मीडिया शिक्षण संस्थानों में आध्यात्मिक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को तैयार कर
इस विधा में प्रशिक्षित एवं निष्णात पत्रकार तैयार किए जा सकते हैं, एक यक्ष
प्रश्न है।
संदर्भ -
[i]. रुपचन्द गौतम,
मीडिया और संस्कृति, श्रीनटराज प्रकाशन, दिल्ली, 20008 में मन्निका चौपड़ा का लेख
धर्म की पत्रकारिताः पत्रकारिता का धर्म,
पृ.135
[ii]. रुपचन्द गौतम, वही
[iii]. वही
[iv]. वही, पृ.136
[v]. ज्ञानेन्द्र रावत
की पुस्तक प्रेस-प्रहार और प्रतिरोध , 2008, में ज्योतिर्मय, लोगों की आस्थआ
सम्भाले धार्मिक पत्रकारिता की उपेक्षा क्यों, पृ.132
[vi]. वेद प्रताप वैदिक
(सं.), हिन्दी पत्रकारिता विविध आयाम, पृ. 412
[vii]. वही, पृ.133
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें